Saturday, March 26, 2011

होली के चार छंद

(1)
लागी अबीर गुलाल जो लाल तो भाल कै श्री कछु औरहिं जागी ।
जागी जो अ र र कबीर की बानी गुमानहिं मान सबै जन त्यागी ।
त्यागि के आज मलाल-कुचाल निहाल भए रस प्रेमहिं पागी ।
पागी सनेह-सुधा संग मीतहिं बैरिहुं सों बढ़ि अंकहिं लागी ।
(2)
रंग कुरंग भयो गुंझिया के जो दूध व खोया ने दै दियो गोली ।
तेल व आलू के झापड़ खाइ के पापड़ की भई सूरत भोली ।
हाल बेहाल है काले में दाल है यार हलाल किये घटतोली ।
कोढ़ में खाज बनी है चिढ़ावति सौतन सों चली आवति होली ।
(3)
भायन मा हौं बड़ा सबसे मोरी भावज है न कोऊ मुंहबोली ।
साली जो मांगत रंग खेलाई कै है महंगा लहंगा अरु चोली ।
रंग के नाम करैं घरवालिहुं जी खिसियाय के टाल मटोली ।
यार रंगे हैं सियार की भांति मैं खेलूं भला केहिके संग होली ।
(4)
यार मिलें दिलदार तो खेलना भाता है रंग-गुलाल की होली ।
गोरी मिले ब्रज ग्वालिन जैसी तो खेलिए लट्ठ व ढाल की होली ।
भंग का रंग जमे तो जमाइये बाद में मीठे के थाल की होली ।
फीका है फागुन सारा का सारा जो खेली नहीं ससुराल की होली ।
- ओमप्रकाश तिवारी

1 comment:

  1. सुंदर दोहे या चोपाई में होली का प्रसंग

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