Saturday, March 26, 2011

--- तो सरदार कितने असरदार होते तुम

(1)
जैसे अर्थशास्त्र जानते हो उसी भांति यदि
राजनीति शास्त्र के भी जानकार होते तुम ।
राज़दार जैसे बने राजा और राडिया के
काश जन-मन के भी जानकार होते तुम ।
भ्रष्ट सहयोगियों के बन के कवच यदि
आज यूं बुढ़ापे में न दागदार होते तुम ।
पीएम के पद को कलंकित न करते
तो सरदार कितने असरदार होते तुम ।
(2)
पीएम बने थे छवि लेकर ईमानदार
वही छवि रहती तो शानदार होते तुम ।
नीली पगड़ी पे रंग-सोनिया न चढ़ता
तो सच कहता हूँ बड़े रंगदार होते तुम ।
लुटता नहीं ये देश हसनअली के हाथों
जिम्मेदारियों से जो खबरदार होते तुम ।
कोर्ट से जो बार-बार मिलती न फटकार
सरदार कितने असरदार होते तुम ।
(3)
छपता था नोट-नोट पर नाम धुआंधार
वही छवि लिए हुए सरदार होते तुम ।
चक्कर में पड़ते न आज जो फटीचरों के
होकर रिटायर भी दमदार होते तुम ।
अच्छे-खासे आदमी को चमचों ने चूस लिया
वरना तो मर्जी के सरकार होते तुम ।
कलमाडियों के साथ खेल नहीं खेलते
तो सरदार कितने असरदार होते तुम ।
(4)
चाचा नेहरू सरीखी दूरदृष्टि रखते तो
आज नहीं सह रहे दुत्कार होते तुम ।
लालबहादुर जैसे लाल होते देश के तो
जनता के प्यार के भी हकदार होते तुम ।
गुरु तेग वाली तेग याद कर लेते यदि
दुर्गा सी इंदिरा के अवतार होते तुम ।
काश ! आप एक भी चुनाव जीत सकते
तो सरदार कितने असरदार होते तुम ।
(5)
गरिमा बना के आप पी.एम. की चलते
न युवराज राहुल के चाटुकार होते तुम ।
मंत्रिमंडल की साख का ख्याल रखते व
साथियों से खा रहे न फटकार होते तुम ।
बार-बार सीमा पे न शीश कटता अगर
सख्त कूटनीतियों के जानकार होते तुम ।
काँपते नवाज आज सिंह की दहाड़ से
तो सरदार कितने असरदार होते तुम ।

- ओमप्रकाश तिवारी

होली के चार छंद

(1)
लागी अबीर गुलाल जो लाल तो भाल कै श्री कछु औरहिं जागी ।
जागी जो अ र र कबीर की बानी गुमानहिं मान सबै जन त्यागी ।
त्यागि के आज मलाल-कुचाल निहाल भए रस प्रेमहिं पागी ।
पागी सनेह-सुधा संग मीतहिं बैरिहुं सों बढ़ि अंकहिं लागी ।
(2)
रंग कुरंग भयो गुंझिया के जो दूध व खोया ने दै दियो गोली ।
तेल व आलू के झापड़ खाइ के पापड़ की भई सूरत भोली ।
हाल बेहाल है काले में दाल है यार हलाल किये घटतोली ।
कोढ़ में खाज बनी है चिढ़ावति सौतन सों चली आवति होली ।
(3)
भायन मा हौं बड़ा सबसे मोरी भावज है न कोऊ मुंहबोली ।
साली जो मांगत रंग खेलाई कै है महंगा लहंगा अरु चोली ।
रंग के नाम करैं घरवालिहुं जी खिसियाय के टाल मटोली ।
यार रंगे हैं सियार की भांति मैं खेलूं भला केहिके संग होली ।
(4)
यार मिलें दिलदार तो खेलना भाता है रंग-गुलाल की होली ।
गोरी मिले ब्रज ग्वालिन जैसी तो खेलिए लट्ठ व ढाल की होली ।
भंग का रंग जमे तो जमाइये बाद में मीठे के थाल की होली ।
फीका है फागुन सारा का सारा जो खेली नहीं ससुराल की होली ।
- ओमप्रकाश तिवारी